सूचना का अधिकार: वर्तमान परिदृश्य एवं व्यावहारिक समस्याएं

 

डिगेश्वर साहू

शोधाथीर्, पीएचडी समाजकार्य, विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन (.प्र.)

 ’ब्वततमेचवदकपदह ।नजीवत म्.उंपसरू  कपहमेीण्ेंीन98/हउंपसण्बवउ

 

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सूचना का अधिकार अधिनियम सूचनाओं तक पहुँचने का एक कानूनी ढाँचा स्थापित करता है। सुशासन के एक उपकरण के रूप में इसकी व्यावहारिक सफलता की कुंजी नागरिकों के हाथों में ही है। नागरिकों का यह बुनियादी दायित्व है कि इस अधिनियम का उपयोग कर यह सुनिश्चित करें कि देश भर में सभी लोक प्राधिकरण एक सुदृढ़ एवं नागरिकों के पक्षधर होकर सूचना प्राप्त कराने वाले ढाँचे को स्थापित कर रहे हैं। आम नागरिक के लिए सूचना का अधिकार एक शक्तिशाली और जीवंत अधिकार बन सकता है। सूचना का अधिकार अधिनियम भ्रष्टाचार को मिटाने और सरकार की सेवा प्रदाता व्यवस्था को सुधारने में कामयाब हो, यह सुनिश्चित करने के लिये नागरिकों को अधिक से अधिक संख्या में इस कानून का उपयोग कर सरकार से सूचना माँगना होगा। यह सरकार को लोगों के प्रति जवाबदेह बनाने का सबसे विश्वस्त तरीका है। इस शोध पत्र में सूचना का अधिकार के वर्तमान परिदृश्य और व्यावहारिक समस्यायों पर समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।

 

ज्ञम्ल्ॅव्त्क्ैरू सूचना, अधिकार, अधिनियम, परिदृश्य, अपील, प्राधिकरण, विश्लेषण, विकेंद्रीकरण, लोकतंत्र

 

 

प्रस्तावना:

स्वतंत्रता प्राप्ति के 58 वर्षो के पश्चात 12 अक्तूबर, 2005 से सूचना के अधिकार द्वारा नागरिकों के लिए लोकतंत्र में संभवतः पहली बार विधि द्वारा स्थापित लोक की सर्वोच्चता कायम की गई। सार्वजनिक संस्थाओं के पास उपलब्ध सूचनाओं पर नागरिकों की हकदारी जैसे साधारण अधिकार के परिणाम दीर्घ और गहन हैं। इस अधिकार से -गवर्नेंस और सूचना प्रौद्योगिकी के युग में अपने परम्परागत समस्याओं में उलझे प्रशासनिक ढांचे को नई प्रशासनिक संस्कृति स्थापित करने का अवसर मिलता है। अब भारत भी दुनिया के उन 60 देशों में शामिल हो गया है, जिन्होंने अपने नागरिकों को सूचना का अधिकार प्रदान कर पारदर्शी, जवाबदेह एवं गुड गवर्नेस स्थापित करने की चाक चैबंद व्यवस्थाएं की है। पिछले दो वर्षा में इस कानून के कार्यान्वयन के दौरान कानून के दायरे एवं निष्पादन से जुडे ऐसे मुददे आए जिनका समय रहते समाधान आवश्यक है। शायद इसी आकांक्षा को देखते हुए 6 अध्यायों एवं 32 धाराओं के इस छोटे से लेकिन प्रभावशाली कानून की धारा 30 में यह प्रावधान है कि दो वर्ष में कानून का पुनः परीक्षण कर कानून के कार्यान्वयन में रही मुश्किलों को दूर करने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा निर्देश दिए जाएंगें। यह भी नितान्त आवश्यक है कि सूचना के अधिकार कानून के कार्यान्वयन से जुड़ी कुछ अस्पष्टताओं को दूर किया जाए। सारे देश के विविध क्षेत्रों, मीडिया, सिविल सोसाइटी के संगठनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार सार्वजनिक संस्थाओं में कानून के विविध प्रावधानों के अर्थ, दायरे को लेकर जो भ्रांतियां हैं उनका समाधान आवश्यक है। ऐसे कुछ मुद्दों पर विचार एवं विकल्पों की खोज जरूरी है।

 

शोध पत्र के उद्देश्य:

1ण् सूचना का अधिकार के वर्तमान परिदृश्य का अध्ययन करना।

2ण् सूचना का अधिकार के व्यावहारिक समस्याओं का अध्ययन करना।

 

शोध प्रविधिः

प्रस्तुत शोध पत्र द्वितीयक आंकड़ों स्वोट विश्लेषण (ैॅव्ज् ।दंसलेपेतकनीक पर आधारित है जिसके अंतर्गत अंतर्वस्तु विश्लेषण के माध्यम से अध्ययन करके निष्कर्ष निकाले गये हैं। शोध में प्राथमिक आंकड़ों का उपयोग नहीं किया गया है।

 

सूचना जिनकी मांग की जा सकती हैं:

    सरकार सरकार के किसी भी विभाग से संबंधित सूचना

    सरकारी ठेकों, भुगतान, अनुमानित खर्च, निर्माण कार्यों के माप आदि की फोटो प्रतियाँ

    सड़क, नाली भवन निर्माण में परियुक्त सामग्री के नमूने

    निर्माणधीन अथवा पूर्ण विकास कार्यों का निरीक्षण

    सरकारी दस्तावेजों, रिकार्ड पुस्तिका रजिस्टरों आदि का निरीक्षण 

    प्रार्थना पत्र शिकायतों की स्थिति की सूचना

 

सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की विशेषताएंः

1.   आप केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, पंचायती राज संस्थाएँ तथा ऐसे संगठन संस्थाएँ (गैर-सरकारी) जिनका गठन, संचालन, नियत्रण और वित्तीय सहयोग राज्य अथवा केन्द्र सरकार द्वारा हो रहा है, से सूचना की मांग कर सकते है। {धारा 2 () और (एच)}

2.   प्रत्येक विभाग में एक या अधिक लोक सूचना अधिकारी नियुक्त किये जायेंगे, जो लोगों से सूचना सम्बन्धी फार्म प्राप्त करेंगे निर्धारित अवधि में सूचनाएं उपलब्ध करायेगें। {धारा 5 (1)}

3.   इसके अलावा प्रत्येक उप जिला स्तर पर सहायक लोक सूचना अधिकारी नियुक्त किये जायेंगे, जिनसे सूचना भी माँगी जा सकती है और लोक सूचना अधिकारी के निर्णयों के विरुद्ध अपील भी की जा सकेगी यह अपील वे सम्बन्धित अधिकारियों को भेजेंगे। {धारा 5 (2)}

4.   सूचना चाहनेवाला व्यक्ति निर्धारित प्रपत्र में प्रार्थना पत्र लोक सूचना अधिकारी/ सहायक लोक सूचना अधिकारी को प्रस्तुत करेगा।

5.   जब प्रार्थना पत्र अलिखित हो, तो सूचना अधिकारी प्रार्थना को मौखिक रूप से सुन कर लिखने में मदद करेगा। {धारा 6 (1)}

6.   सम्बन्धित अधिकारी ऐसी सूचना प्राप्त करने में मदद करेगा, जो निरीक्षण करने के लिए जरुरी हो। {धारा 7 (4)}

7.   प्रार्थी को प्रार्थना पत्र देने के लिए किसी कारण अथवा व्यक्तिगत विवरण देने की आवश्यकता नहीं है।

8.   सूचना उपलब्ध कराने के लिए निर्धारित शुल्क का भुगतान आवेदकों को करना होगा।

 

सूचना का अधिकार का वर्तमान परिदृश्य:

सूचना का अधिकार के लागू होने सेे लेकर आज पर्यंत तक इसकी उपयोगिता में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। अपील और शिकायती प्रकरणों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी होना इस अधिकार के क्रियान्वयन और व्यवहारिक समस्याओं की ओर ध्यान बरबस ही  आकृष्ट करता है।

(सौ.-छत्तीसगढ़ राज्य सूचना आयोग को प्राप्त अपील एवं शिकायत प्रकरणों का वर्षवार विवरण 2006 से 2016 तक)

 

 

 

 

भारत में सूचना अधिकार कानून (आरटीआई एक्ट) को लागू हुए तेरह साल पूरा हो चुका है, लेकिन आम जनता और सरकारी अधिकारी अभी भी इस कानून के कई पहलुओं से अनभिज्ञ हैं। यह अनभिज्ञता दायर की गई अपीलों और लोकसेवकों द्वारा दिये गये उनके जवाबों को देखकर स्पष्ट हो जाती है। कई बार ऐसी अपीलें दायर की जाती हैं, जिनके पीछे दायर करने वालों के निजी स्वार्थ छुपे होते हैं। राजनीतिक पार्टियां कई बार अधिकारियों से अपनी खुन्नस निकालने के लिए इसका इस्तेमाल करती हैं। इलाके में कोई सड़क बन रही हो और स्थानीय प्रशासन उनकी बात सुनने से इंकार करता है तो आरटीआई की अर्जियां दाखिल कर दी जाती हैं। आरटीआई कानून के मुताबिक ऐसी सभी सूचनाएं सार्वजनिक की जा सकती हैं, जो सार्वजनिक हित से जुड़ी हुई हैं। लेकिन अक्सर ऐसी सूचनाओं की मांग की जाती है, जो इस कानून के दायरे से ही बाहर हैं। कई बार ऐसी अपीलें दायर की जाती हैं, जिनका कोई मतलब नहीं होता, कोई उद्देश्य नहीं होता। इस तरह की अपीलों से संबद्ध अधिकारी भी उलझ कर रह जाते हैं, क्योंकि वे पहले ही इस कानून के बारे में तमाम तरह की भ्रांतियों से ग्रसित हैं।

 

सूचना का अधिकार कानून के कई पहलू अभी भी संदेह के घेरे में हैं। उदाहरण के लिए, कौन सी सूचना सार्वजनिक की जानी है और कौन सी नहीं, कई लोगों को अब तक यही स्पष्ट नहीं हो पाया है। 30 दिनों की समय सीमा के अंदर सूचना उपलब्ध कराने संबंधी प्रावधान पर भी संदेह बना हुआ है। आम जनता इसकी व्याख्या अपने हिसाब से करती है तो सरकारी अधिकारी अपने हिसाब से। गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाले लोगों को सूचना हासिल करने के लिए किसी भी तरह के शुल्क का भुगतान नहीं करना पड़ता है। आरटीआई कानून के अंतर्गत सार्वजनिक हित से जुड़ी हर सूचना की मांग कोई भी कर सकता है, लेकिन ऐसी सूचनाएं जो आसानी से उपलब्ध नहीं हैं और जिन्हें हासिल करने के लिए अतिरिक्त संसाधनों का इस्तेमाल करना आवश्यक हो, तो इस कानून की धारा 7 की उपधारा 9 के मुताबिक उसे उपलब्ध कराना जरूरी नहीं है। हालांकि ऐसे अपीलकर्ता आवश्यक शुल्क का भुगतान करके रिकॉड्र्स की समीक्षा की मांग कर सकते हैं। ऐसे उदाहरण भी देखने को मिलते हैं, जिनमें लोक सूचना अधिकारी अज्ञानतावश गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को भी मुफ्त में सूचनाएं उपलब्ध करा देते हैं। यह सही नहीं है, क्योंकि इससे बेतुकी अपीलों और स्वार्थी तत्वों को बढ़ावा मिलता है। राज्य लोक सूचना अधिकारी और अन्य संबद्ध अधिकारियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आरटीआई कानून के तहत अपीलें जरूरी शुल्क के साथ ही दायर की जाएं। इतना ही नहीं, अपीलकर्ताओं को रिकॉड्र्स की समीक्षा, फोटोस्टेट और सीडी आदि के लिए भी अलग से भुगतान करने का निर्देश दिया जाना चाहिए। ऐसा करने से संभव है कि बिना वजह अपील दायर करने वाले लोग खुद ही पीछे हट जाएं। सच तो यह है कि यदि अधिकारी इस कानून की धारा 4 में दिए गए अनुदेशों का पालन करें तो अपने कीमती समय और ऊर्जा की काफी बचत कर सकते हैं। कंप्यूटर शिक्षा प्राप्त अपीलकर्ताओं को जरूरी सूचना हासिल करने के लिए संबद्ध वेबसाइट का पता दिया जा सकता है।

 

अधिकांशतः अपीलकर्ताओं को सूचना उपलब्ध कराने से पहले सूचना अधिकारी अपने वरिष्ठ अधिकारियों की अनुमति का इंतजार करते रहते हैं। यह अनावश्यक है और इससे अपीलों के शीघ्र निस्तारण में बाधा पहुंचती है। यदि अपील किसी गंभीर मसले से जुड़ी हो या नीतिगत फैसले से संबंधित हो तो सूचना अधिकारियों को अपने वरिष्ठों की अनुमति का इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं है। वैसे भी किन मसलों पर वरिष्ठों की अनुमति आवश्यक है, इसका फैसला पहले ही होना चाहिए, कि अपील दायर होने के बाद। इतना ही नहीं, मानवीय कार्यों से जुड़ी अपीलों के मामले में अपीलकर्ता को आवश्यक शुल्क का भुगतान कर स्वयं ही रिकाड्र्स की समीक्षा के लिए आमंत्रित करना एक बेहतर विकल्प हो सकता है। इन उपायों का नतीजा यह होगा कि बिना वजह अपील करने वाले लोग हतोत्साहित होंगे, जबकि जरूरतमंद लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा। चूंकि तय समय सीमा के अंतर्गत सूचनाएं उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सूचना अधिकारियों की है, इसलिए उन्हें सूचनाएं उपलब्ध कराने में अपनी तत्परता दिखानी चाहिए। सूचना अधिकार कानून के कई पहलू अभी भी संदेह के घेरे में हैं। उदाहरण के लिए, कौन सी सूचना सार्वजनिक की जानी है और कौन सी नहीं, कई लोगों को अब तक यही स्पष्ट नहीं हो पाया है। 30 दिनों की समय सीमा के अंदर सूचना उपलब्ध कराने संबंधी प्रावधान पर भी संदेह बना हुआ है। आम जनता इसकी व्याख्या अपने हिसाब से करती है तो सरकारी अधिकारी अपने हिसाब से। गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाले लोगों को सूचना हासिल करने के लिए किसी भी तरह के शुल्क का भुगतान नहीं करना पड़ता है। इसका फायदा उठाकर लोग शुल्क के भुगतान से बचने के लिए अक्सर गरीब लोगों से अपीलें दायर कराते हैं यह चिंताजनक है।

 

कई बार सूचना आवेदन भी विभागीय टालमटोल के कारण एक विभाग से दूसरे विभाग में घूमते रहता है। ऐसी अपीलें, जिनकी विषयवस्तु को लेकर संदेह होता है, को अक्सर लंबे समय तक ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। इसके चलते संबद्ध विभाग को अंतिम अपीलीय न्यायाधिकरण के सामने आर्थिक दंड का भुगतान भी करना पड़ता है। ऐसे हालात से बचने के लिए इन अपीलों के जल्दी निपटारे की कोशिश की जानी चाहिए। इसके लिए मामले की जल्द सुनवाई की व्यवस्था होनी चाहिए या जरूरी हो तो अपीलकर्ता से लिखित स्पष्टीकरण मांगा जाना चाहिए। ऐसी सूचनाओं, जिनके लिए शुल्क का भुगतान अनिवार्य है, के मामलों में ज्यादा सतर्कता बरतने की जरूरत है और बेहतर यही है कि सूचना उपलब्ध कराए जाने से पहले अपीलकर्ता से व्यक्तिगत रूप से मिला जाए। सूचना अधिकार कानून की आलोचना की एक बड़ी वजह यह है कि न्यायपालिका और इसकी गतिविधियों से जुड़ी सूचनाएं अभी भी इसके दायरे से बाहर हैं। एक ओर जब हम लोकतंत्र, जनता के अधिकार और कानून के समक्ष समानता की बातें करते हैं तो इसकी कोई वजह नहीं दिखती कि न्यायपालिका को सूचना अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखा जाए। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि सूचना अधिकार कानून के इस विरोधाभास को जल्द ही दूर कर लिया जाएगा, ताकि इसका ज्यादा प्रभावी ढंग से इस्तेमाल संभव हो सके।

 

विदेशियों और गैर भारतीय नागरिकों को सूचना उपलब्ध कराए जाने को लेकर भी संशय मौजूद है। सूचना अधिकार कानून के तहत उन्हें भी वे सभी सूचनाएं उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान है, जो सार्वजनिक हित से जुड़ी हैं। कानून की धारा 8 के तहत व्यक्तिगत या न्यायिक मामलों से जुड़ी सूचनाओं को छोड़कर लोकसेवकों की संपत्ति या आयकर से संबंधित ब्यौरे की मांग की जा सकती है। सूचना अधिकार कानून के लिए विभिन्न स्तरों पर जरूरी संसाधनों के गठन के साथ आम जनता और लोकसेवकों के बीच इसके सभी पहलुओं के प्रति जागरूकता में वृद्धि भी अपेक्षित है। राज्य के कल्याणकारी कार्यों में हुई अभूतपूर्व वृद्धि के मद्देनजर इस कानून के लिए जरूरी संरचना का गठन समय की जरूरत बन चुका है। यह आवश्यक है कि आम लोगों द्वारा दायर की गई अपीलों के शीघ्र निष्पादन के लिए अलग से अधिकारियों को नियुक्त किया जाए।

 

 

व्यावहारिक समस्याएं:

सूचना के अधिकार कानून का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू लोक प्राधिकरण के मुद्दे पर स्पष्टता की आवश्यकता है। कानून की धारा 2 (एच) के तहत लोक प्राधिकरण अथवा सार्वजनिक संस्थाओं के पास उपलब्ध सूचनाओं की मांग कर सकता है। सार्वजनिक संस्थाओं में संविधान द्वारा स्थापित या गठित, संसद या किसी राज्य विधायिका के कानून द्वारा स्थापित या गठित, केन्द्र या राज्य सरकार की किसी अधिसूचना या आदेश के द्वारा स्थापित या गठित, राज्य केन्द्र सरकार के स्वामित्व वाली, उनके द्वारा नियंत्रित या पर्याप्त मात्रा में सरकारी धनराशियां पाने वाले निकाय सभी गैर सरकारी संगठनों निजी क्षेत्रों के निकाय जो सरकार के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वित्तपोषित हैं, शामिल हैं। अब इस लोक प्राधिकरण की व्यापक परिभाषा जिसमें पंचायत से लेकर राष्ट्रपति कार्यालय तक के स्तर शामिल हैं, जिससे सूचना मांग सकते हैं। लेकिन व्यावहारिक रूप से सामान्य नागरिक के लिए यह जान पाना कठिन है कि लोक प्राधिकरण संस्थाओं अथवा पब्लिक ऑथोरिटी में कौन सी संस्थाएं शामिल हैं या कौन-सी नहीं। एक सामान्य नागरिक के लिए यह जान पाना भी कठिन है कि कब-कब किस प्रशासकीय आदेश अथवा नोटिस से पब्लिक ऑथोरिटी कायम की गई अथवा सरकार के द्वारा नियंत्रित निकाय कौन से है? या फिर ऐसे गैर सरकारी संगठन कौन-से हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वित्तपोषित है? इसी प्रकार इस परिभाषा मेंनियंत्रितआंशिक सहायता प्राप्त संगठनउलझनपूर्ण शब्द हैं। सूचना के निरीक्षण और अवलोकन को लेकर भी प्राधिकरण और आवेदकों में संशय की स्थिति निर्मित होती है।

 

    अपीलीय परिदृश्य:

अधिनियम में अपीलीय अधिकारी के संबंध में भी अस्पष्टता है। सूचना के अधिकार कानून का यह प्रावधान है कि प्रत्येक सार्वजनिक संस्था में सूचना अधिकारी की नियुक्ति होगी। यदि आवेदक लोक सूचना अधिकारी के सूचना के अधिकार के आवेदन पर दिए गए निर्णय से असंतुष्ट है तो उसे दो स्तरों पर अपील का अधिकार है प्रथम अपील अधिकारी उसी सार्वजनिक सस्था के लोक सूचना के वरिष्ठ अधिकारी तथा द्वितीय अपील केन्द्रीय अथवा राज्य सूचना आयोग होंगे। इस तरह कानून के अनुसार प्रथम अपील अधिकारी एक महत्त्वपूर्ण स्तर है जो नागरिकों को राहत प्रदान करेगा। अब तक का अनुभव यह है कि प्रथम अपील अधिकारी के निर्णय सामान्यतः वहीं होते हैं जो लोक सूचना अधिकारी के होते हैं। प्रथम अपील अधिकारी के कर्तब्य, जिम्मेदारी, गलत निर्णय देने पर जुर्माने की कोई व्यवस्था नहीं है। मजबूरन नागरिक द्वितीय अपील में सूचना आयोगों का दरवाजा खटखटाता है, जिससे देश के सूचना आयोगों के पास सूचना के अधिकार में लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रथम एवं द्वितीय अपील के लिए आवेदक को अपीलीय सुनवाई के लिए व्यक्तिगत रूप से बुलाया जाता है। अपीलीय कार्यालय के भौगोलिक रूप से अधिक दूरी पर स्थित होने के कारण आवेदक का मनोबल कमजोर होता है और उसे आर्थिक और मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

 

    स्वतः प्रकटन:

सूचना के अधिकार कानून का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू कानून की धारा 4(1) () के तहत 17 श्रेणियों की सूचनाएं बिना नागरिक की मांग के स्वतः आगे बढ़कर प्रकाशित करनी चाहिए थी। साथ ही उसे समय-समय पर अद्यतन भी करना था। दुर्भाग्यवश यह अपेक्षा औपचारिकता मात्र बनकर रह गईं है। यदि ध्यानपूर्वक विश्लेषण किया जाये तो इन 17 श्रेणियों की सूचनाओं को प्रकाशित कर देने से अथवा रिकॉर्ड मैनेजमेंट की व्यवस्थाओं से सार्वजनिक संस्थाओं का कार्यभार घटता है। सूचना के अधिकार के आवेदनों की संख्या कम होती है तथा पारदर्शी ढांचा कायम होता है। लेकिन यह कार्य व्यापक रूप में नहीं हो पाया। सार्वजनिक संस्थाओं की इच्छा पर निर्भर करता है कि वे चाहे तो धारा 4 के तहत 17 श्रेणियों की सूचनाएं उजागर करे अथवा करे। दण्ड के अभाव में अथवा ऐसी किसी बाध्यता के अभाव में इन संस्थाओं ने इस पर मनमानी रवैया बना लिया है।

    शुल्क भुगतान:

सूचना के अधिकार कानून में सर्वाधिक उलझन आज देशभर में फीस के सन्दर्भ में अलग-अलग मतों को प्रकट करने से रही है। कानून की धारा 6(1) में आवेदन शुल्क की बात कही गयी है जो सामान्यतः 10 रुपये हैं, किन्तु कुछ मामलों में यह 500 रुपये रखी गयी है। आवेदन शुल्क का यह मनमाना निर्धारण नागरिक के सूचना पाने के अधिकार का हनन है। कानून की धारा 7(5) में स्पष्तः रेखांकित है कि शुल्क तार्किक होना चाहिए। साथ ही धारा 7(3) में सूचना लेने के लिए जो सैम्पल, मॉडल, अतिरिक्त फोटो कापियों का शुल्क है, ‘फरदर फीसशब्द का प्रयोग किया गया है। कानून में निर्धनता से नीचे (बीपीएल) से फीस लेने की मनाही है, लेकिनफरदर फीस के संदर्भ में निर्णय नहीं किया गया है यहां सन्देह उत्पन्न होता है कि क्या बीपीएल एक लाख से अधिक डाक्यूमेंट मांगे तो उसे दे देना चाहिए। संभवतः इसका उत्तर हां में नहीं होगा। सामान्यतः आवेदकों को अतिरिक्त सूचना प्राप्ति के लिए अनुमानित शुल्क बताकर राशि जमा करने को कहा जाता है जो कि नियमानुकूल नहीं है। जनसूचना अधिकारी को सटीक राशि की गणना करने के उपरांत ही आवेदकों को इस हेतु सूचित किया जाना न्यायोचित होना चाहिए।

 

    इलेक्ट्रॉनिक तकनीक:

कानून की धारा 6(5) में सूचना के आदेश के लिएइलेक्ट्रॉनिक फार्मेटएवं मेल की बात कही जाती है, लेकिन ऐसी स्थिति में आवेदन शुल्क का प्रकार क्या हो? क्या पोस्टल आर्डर या अन्य कोई ऑन लाइन भुगतान की व्यवस्था की जा सकती है? क्या समय के बचाव के लिए निर्धारित इस उद्देश्य को पूर्ण किया जा सकता है। सभी विभागों के लिए एक ही सूचना प्लेटफार्म का निर्माण नहीं हो पाया है। उक्त प्रावधानों के साथ ही कानून में व्यक्ति एवं नागरिक शब्द के स्पष्टीकरण की आवश्यकता, कानून में पर्याप्त विकेन्द्रीकरण के मुद्दों का अभाव, जीवन एवं स्वतंत्रता से सम्बन्धित मुद्दों में 48 घण्टे में निर्णय लेना, लेकिन उन मामलों में प्रथम अपील के लिए 30 दिन की अवधि के निर्धारण की विसंगति इत्यादि अन्य उलझे प्रश्न हैं।

 

सुझाव:

सूचना के अधिकार कानून के प्रयोग के कार्यान्वयन की उक्त उल्लेखित समस्याओं के सन्दर्भ में यह अत्यावश्यक है कि एक ओर कानून के सलेटी पक्षों को जल्दी साफ किया जाए दूसरी ओर इस कानून की असली मंशा प्रशासनिक ढांचे और तंत्र में दीर्घकालिक सुधारों को सुनिश्चित किया जाय। क्या कानून के दायरे को सुव्यवस्थित करने के लिएपब्लिक अँथोरिटीजको चिन्हित करना, अपील अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करना, आवेदन शुल्क के मुद्दों पर स्पष्टता, व्यक्ति एवं नागरिक के अर्थ स्पष्ट किया जाना आवश्यक नहीं है? कानून को प्रभावशाली बनाने के लिए सूचना के अधिकार मामलों के निस्तारण की गति बढानी होगी, सूचना आयोगों के पास मौजूदा अपीलों के बोझ को कम करने के उपाय करने होंगे और तकनीक के लाभों को चाहे वह ऑनलाइन भुगतान हो, वीडियो कान्क्रेंसिंग के माध्यम से सूचना आयोगों द्वारा मामलों का निस्तारण हो या रिकॉर्ड मैनेजमेंट की व्यवस्थाएं, स्वतः सूचनाएं देने के मुस्तैद प्रयास और ऐसे ही अन्य उपायों से आगे और पीछे की कड़ियों को जोड़ना होगा।

 

निष्कर्ष:          

आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में नागरिकों ने सूचना के अधिकार कानून का प्रयोग किया है। सूचना का अधिकार कदम-कदम करके निरंतर आगे बढ़ रहा है, लेकिन कानून के दायरे मुख्य प्रावधानों के संबंध में मत मतान्तरों एवं अस्पष्ट क्षेत्रों को भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है। प्रशासकीय संरचना के विकास से यह कानून ज्यादा प्रभावशाली सिद्ध हो सकता है। ऐसे अधिकारी, जो जानबूझ कर अपने दायित्वों से मुंह मोड़ते हैं या मांगी गई सूचना उपलब्ध कराने से आनाकानी करते हैं, उनके खिलाफ दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए। साथ ही बेतुके या स्वार्थी अपीलकर्ताओं के लिए भी सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए। लेकिन दंड और जुर्माने के इन प्रावधानों को सावधानीपूर्वक लागू किया जाना चाहिए और अधिकारियों के मनमाने व्यवहार पर रोक लगनी चाहिए। संबद्ध अधिकारियों की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को भी ज्यादा स्पष्ट किए जाने की जरूरत है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि लोक सूचना अधिकारियों और अपीलीय निकायों के अधिकारों में वृद्धि की जानी चाहिए। इस पर चिंतन और व्यापक शोध कार्य किये जाने की आवश्यकता है।

 

सन्दर्भ ग्रन्थ सूचीः

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Received on 21.12.2018                Modified on 06.01.2019

Accepted on 18.01.2019            © A&V Publications All right reserved

Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2019; 7(1):154-160.