भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में स्वराज्य दल की भूमिका
डाॅ. डिश्वर नाथ खुटे
सहायक प्राध्यापक, इतिहास अध्ययनशाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय,रायपुर (छ.ग.)
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स्वराज दल का लक्ष्य ’’स्वराज’’ की प्राप्ति था। स्वराज से उसका अभिप्राय साम्राज्य के अंतर्गत औपनिवेशिक स्थिति को उपलब्ध करना था। स्वराजिस्ट चाहते थे कि निर्वाचनों में पूरा भाग लेकर व्यवस्थापिका मण्डलों की अधिक से अधिक सीटों पर कब्जा कर लिया जाए।
ज्ञम्ल्ॅव्त्क्ैरू भारतीय स्वाधीनता आंदोलन, स्वराज्य दल
प्रस्तावनाः-
1922 ई. में असहयोग आंदोलन के स्थगन ने भारतीय राजनीति में नयी प्रवृत्तियों को जन्म दिया। आंदोलन की समाप्ति के समय कांग्रेस के प्रमुख नेता जेल में थे। उन्हें महात्मा गांधी के इस निर्णय को जानकर बहुत आश्चर्य तथा क्षोभ हुआ। इस निर्णय से जनता में क्षोभ फैल गया।1 लाला लाजपत राय और मोतीलाल नेहरू ने जेल से ही गांधी को रोषपूर्ण पत्र लिखे, जिसमें एकाएक आंदोलन को स्थगित करने की कटु आलोचना की गई थी। गांधीजी को सरकार के खिलाफ असंतोष भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर 6 वर्ष की सजा दी गई। गांधीजी की गिरफ्तारी से राष्ट्रवादी खेमें में बिखराव आने लगा। तमाम लोगों ने गांधीजी जी की रणनीति पर प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू कर दिया। दूसरे नेता इस गतिरोध से उबरने का रास्ता ढंूढने लगे।2
इस समय कांग्रेस के सदस्यों में दो मत थे - अपरिवर्तनवादी और परिवर्तन वादी। अपरिवर्तनवादी वर्ग कांग्रेस की नीति और कार्य पद्धति में यथास्थिति के समर्थक थे। इस वर्ग के प्रमुख सदस्यों में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, डाॅ. एम.एस. अंसारी एवं एस कस्तुरी रंगाय्यर। यह वर्ग विधानमंडल के चुनावों में भाग लेने के विरोधी थे। दूसरा वर्ग परिवर्तनवादी का था। यह वर्ग निर्वाचनों में भाग लेकन विधान सभाओं की सदस्यता ग्रहण कर बहुमत के उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिये संघर्ष करने के पक्षपाती थे। इस वर्ग के प्रमुख समर्थकों में चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, हकीम अजमल खां व बिठ्ठल भाई पटेल आदि थे।3
1922 ई. में कांग्रेस के गया अधिवेशन में चितरंजनदास अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे, जहां उन्होंने कहा था कि ’’हमें शेर को उसकी मांद में पराजित करना होगा, सरकार के गढ़ (कौसिल) को तोड़ना होगा।’’ इसका सी. राजगोपालाचारी ने विरोध किया और कौसिल प्रवेश संबंधी प्रस्ताव के पक्ष में 890 एवं विपक्ष में 1740 मत पड़े जिसके फलस्वरूप प्रस्ताव पारित न हो सका। इस प्रकार गया अधिवेशन में अपरिवर्तनवादियों की विजय हुई। चितरंजनदास ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से एवं पंडित मोतीलाल नेहरू ने महामंत्री पद से त्यागपत्र दे दिय। उन्होंने त्यागपत्र देते समय कहा था कि बहुमत ने हमारे कार्यक्रम को आज अस्वीकार किया है, वही शीघ्र स्वीकार करेगा।
स्वराज्य दल की स्थापना:
कांग्रेस से त्यागपत्र देकर 01 जनवरी 1923 को एक नए दल ’’कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी’’ के गठन की घोषणा की। यही दल बाद में ’’स्वराज दल’’ के नाम से जाना जाने लगा। चितरंजनदास इसके अध्यक्ष और पंडित मोतीलाल नेहरू महामंत्री बने। स्वराजवादियों का प्रथम सम्मेलन इलाहाबाद में मार्च 1923 में पंडित मोतीलाल नेहरू के निवास स्थान पर हुआ था। जिसमें स्वराज दल के संविधान और अभियान की योजना स्वीकृत की गई। कांग्रेस की अनुमति मिल जाने पर स्वराज्यवादियों ने बड़े उत्साह से कार्य किया। उस चुनाव में स्वराज दल के नेताओं को आशातीत सफलता मिली।5
स्वराज्य दल को उद्देश्य (सिद्धांत):
स्वराज दल का लक्ष्य ’’स्वराज’’ की प्राप्ति था। स्वराज से उसका अभिप्राय साम्राज्य के अंतर्गत औपनिवेशिक स्थिति को उपलब्ध करना था। स्वराजिस्ट चाहते थे कि निर्वाचनों में पूरा भाग लेकर व्यवस्थापिका मण्डलों की अधिक से अधिक सीटों पर कब्जा कर लिया जाए। इस प्रकार व्यवस्थापक मण्डलों में पहुंच जाने के उपरांत वहां सरकार के प्रति असहयोग किया जाय और सरकारी नीति में एकरूप अविच्छिन्न और सतत् रोड़ा अटकाया जाए।6 इस तरह स्वराज दल निम्नलिखित उद्देश्य थे:-
(1) ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर रहकर औपनिवेशिक स्वराज प्राप्त करना।
(2) कौंसिल प्रवेश द्वारा (चुनाव लड़ना) वहां से संवैधानिक सुधारों की मांग करना।
(3) निर्वाचन में भाग लेकर आम जनता में राष्ट्रीयता का विचार भरना।
(4) कौंसिल में प्रवेश कर सरकार तथा नौकरशाही के अवांछनीय कार्यकलापों को विरोध करना।
(5) सरकार के कार्यों में रोड़ा अटकाना।7
(6) यदि बहुमत प्राप्त हो जाए तो ऐसे सभी अधिनियम को असफल करने की थी, जिनके द्वारा ब्रिटिश सरकार अपनी शक्ति को सुदृढ़ करना।8
(7) उस परंपरा का अंत करना जो अंग्रेजी सत्ता के अंतर्गत् भारत में विद्यमान थी।9
स्वराज दल के संबंध में कांग्रेस की नई दिल्ली में विशेष बैठक 15 सितंबर 1923 को मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में आयोजित की गई। इसमें कांग्रेस ने उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति दे दी तथा उसे कांग्रेस का ही एक अंग मान लिया गया। अब कांग्रेस के दो अंग हो गए एक वह जो कौसिल प्रवेश में विश्वास रखता था और दूसरा वह जो गांधीजी द्वारा रचनात्मक कार्यक्रम का पक्षपाती था। दोनों ही कांग्रेस में रहते हुए अपना-अपना कार्य कर सकते थे।10
नवम्बर 1923 में विधान परिषदों के चुनाव हुए। 14 अक्टूबर 1923 को जारी अपने घोषणापत्र में स्वराजियों ने साम्राज्य के विरोध को चुनाव का प्रमुख मुद्दा बनाया था। घोषणा पत्र में कहा गया था ’’भारत पर अंग्रेजी हुकूमत का मकसद इंग्लैण्ड के स्वार्थी हितों की पूर्ति करना है और तथाकथित सुधारवादी कानून विदेशी हुकूमत के असीमित संसाधनों का शोषण करना और भारतीय जनता को ब्रिटेन का दावेदार बनाकर रखना है।’’ इसमें वादा किया गया था कि स्वराजी विधान परिषद में संघर्ष करेंगे और पाखंडी सरकार की कलाई खोलेंगे। स्वराजियों को चुनाव प्रचार का बहुत कम समय मिला और वोट भी बहुत कर पड़े।11
नवम्बर 1923 के चुनाव में स्वराज दल को महत्वपूर्ण सफलता मिली। स्वराज दल की सदस्य संख्या निम्नलिखित है12:-
जिसके लिए चुनाव हुए स्वराजिस्ट निर्वाचित निर्वाचित सदस्य आफिसियल व मनोनीत कुल संख्या
केन्द्रीय विधायिका सभा 45 101 44 145
आसाम 18 38 15 53
बंबई 14 86 28 114
बिहार व उड़ीसा 12 76 29 103
मध्यप्रांत व बरार 41 54 19 73
संयुक्त प्रांत 30 100 23 123
बंगाल 47 114 26 140
मद्रास 11 98 29 127
पंजाब 12 71 23 94
केन्द्रीय विधायिका सभा में मध्यप्रांत तथा बंगाल के प्रांतीय विधायिका परिषद में स्वराज दल ने बहुमत प्राप्त किया। बंबई व संयुक्त प्रांत में यद्यपि वे सम्पूर्ण बहुमत में नहीं थे, किन्तु फिर भी उन्हें बहुमत मिला। मद्रास पंजाब व आसाम में कम सीटें मिली। स्वराजियों का महत्व केवल विधायिका परिषद में स्थान प्राप्त करने से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि इस तथ्य से है कि उन्होंने न केवल ब्रिटिश शासन, बल्कि उन उदारवादियों को भी आंतकित कर दिया था। उदारवादियों की पराजय सनसनी फैला रही थी। जिनमें सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी सी.वाई चिन्तामणी परांजये, शेरागिरी अय्यर, जे.एस. सिंह आदि जैसे ऊंचे कद के नेताओं को पराजित करना एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। स्वराजियों की इस दल के सामान्य लोग वर्षों से भारतीय राजनीति के स्तंभ रहे उदारवादियों को शिकस्त दे रहे थे।13
इसी संदर्भ में वायसराय लार्ड रीडिंग का भारत सचिव को 14 दिसंबर 1923 को भेजा गया पत्र महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने लिखा ’’एक अभूतपूर्व घटना और स्वराजियों की विजय महत्वपूर्ण है, जिन्होंने उदारवादियों को उखाड़ फेंका है, केन्द्र तथा प्रांतीय विधायिका सभाओं में शासक के विरोध का बीड़ा उठाया है।’’ लार्ड रीडिंग इसे चितरंजदास व उनके साथियों का महात्मा गांधी के प्रति विद्रोह मानते थे, जबकि वस्तुस्थिति कुछ और थी, निःसंदेह भारतीय राजनीति में स्वराजिस्ट अपनी दस्तक दे रखी थी।14
केन्द्रीय व्यवस्थापिका और स्वराज दल:
स्वराज दल को केन्द्रीय विधानसभा में 145 स्थानों में 45 स्थान मिले थे। वहां उनके नेता पंडित मोतीलाल नेहरू थे। वहां उन्होंने स्वतंत्र तथा राष्ट्रवादी सदस्यों से गठबंधन कर अपना बहुमत बनाया और सरकार के कार्यों में अडंगा डालना शुरू किया।15 यह विभिन्न सदस्यों का गुट राष्ट्रीय पार्टी के नाम से जाना जाता है।16
8 फरवरी 1924 को पंडित मोतीलाल नेहरू ने 1919 के शासन विधान में परिवर्तन करने के अभिप्राय से एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जो कि सरकार के विरोध के बावजूद पारित हो गया। वह प्रस्ताव इस प्रकार था - यह परिषद गवर्नर जनरल से आग्रह करती है कि भारत में पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना करने के उद्देश्य से भारतीय शासन अधिनियम में पूर्ण उत्तरदायी शासन की शासन की स्थापना करने हेतु संशोधन किये जाएं तथा इसके लिये
(1) भारत के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों का एक गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया जाय जो देश के महत्वपूर्ण अल्पसंख्यकों के अधिकारों तथा हितों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भारत के लिए एक संविधान निर्मित करें तथा
(2) वर्तमान व्यवस्थापिका सभा को भंग करके नवनिर्मित व्यवस्थापिका सभा के सम्मुख यह योजना प्रस्तुत की जाय तथा उसे बाद में ब्रिटिश संसद को कानून बनाने के लिए प्रेरित किया जाय।17
इसके उत्तर में सरकारी प्रवक्ता मैल्कम हेली ने यह आश्वासन दिया कि द्वैध शासन प्रणाली के दोषों की जांच करके उनको दूर किया जायेगा। सदस्यों को इस उत्तर से संतोष नहीं हुआ, फलस्वरूप अनुदान की मांग स्वीकार नहीं की और बजट को प्रस्तावित करने की इजाजत नहीं दी। वायसराय को अनुदान मांगों को पारित करने के लिए अपने विशेषाधिकारों को प्रयोग करना पड़ा था।18
मुद्दीमेन समिति रिपोर्ट:
स्वराज दल की गतिविधियों का यह परिणाम हुआ कि फरवरी 1924 के प्रस्ताव के कुछ समय बाद ही ब्रिटिश सरकार ने गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद में अलेक्जेंडर मुद्दीमेन के नेतृत्व में एक जांच समिति 1919 ई. के भारत शासन अधिनिय की जांच करने की नियुक्ति की। स्वराजी नेता पंडित मोतीलाल नेहरू को इस समिति का सदस्य बनने के लिये कहा था, किन्तु उन्होंने उसे नामंजूर कर दिया।19 कमेटी में केन्द्रीय विधानमंडल के बहुमत से सरकारी तथा गैर सरकारी निर्वाचित सदस्य थे, जिनके विचारों में कोई मेल नहीं था। अतएव कमेटी ने दो रिपोर्ट पेश की। एक बहुसंख्यक (सरकारी) रिपोर्ट और दूसरी गैर सरकारी रिपोर्ट। जब सरकारी रिपोर्ट केन्द्रीय विधायिका सभा के सामने स्वीकार करने हेतु रखा तब स्वराजी नेता पंडित मोतीलाल नेहरू ने उसमें एक संशोधन पेश किया, जिसमें मांग की गई कि प्रांतों में द्वैध शासन के स्थान पर केन्द्र में एक एकात्मक उत्तरदायी शासन की स्थापना कर दी जाय, जो विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी हो। उन्होंने कहा कि वह सैनिक व्यय तथा विदेश तथा राजनीतिक विभागों को अपवाद बनाने के लिये तैयार है। संशोधन में एक गोलमेज अथवा इसी रीति की अन्य कोई उपयुक्त व्यवस्था करने की मांग की गई ताकि वह नये संविधान की एक विस्तृत योजना तैयार कर सकें। दो दिनों की बहस के बाद मोतीलाल नेहरू का संशोधन 45 के विरूद्ध 72 मतों से पास हो गया। सरकार ने इस संशोधन को स्वीकार नहीं किया।20 24 जनवरी 1924 को लार्ड रीडिंग ने यह घोषणा की कि ’’ब्रिटिश संसद इन दबाओं के आगे घुटने नहीं टेकेंगे।’’ लेकिन स्वराजियों की कार्यवाही बेकार नहीं गई। 9 माह के भीतर ही गृह सरकार ने 1919 ई के सुधार अधिनियम के अंतर्गत् निर्धारित अवधि से दो वर्ष पूर्व ही यह कार्य कर दिया गया।21
प्रांतों में स्वराज्य दल की उपलब्ध्यिाँ:
चुनाव में स्वराज दल को कुछ प्रांतों में विशेष सफलता मिली। मध्यप्रांत व बरार, बंगाल एवं संयुक्त प्रांत में उन्हें महत्वपूर्ण सफलता मिली। मध्यप्रांत में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुए। बंगाल में अन्य दलों के साथ मिली जुली सरकार बनाने में सफल हुए। इसी प्रकार बंबई और संयुक्त प्रांत में भी वे अपना प्रभाव प्रदर्शित कर सके। स्वराजिस्टों की सफलता का सबसे बुरा असर उदारवादियों पर पड़ रहा था, जो कि स्वराजिस्टों के आने के पहले वह बहुमत में थे।22
1923 के चुनाव में मद्रास, आसाम, बिहार एवं उड़ीसा तथा पंजाब में भी स्वराजियों ने चुनाव लड़े, परंतु उन्हें वहां ज्यादा सफलता नहीं मिली। स्वराज दल ने अनेक प्रांतों में बहुमत प्राप्त कर सरकार के कार्यों में विरोध पैदा कर अपना प्रभाव बनाए रखा। बर्केन हेड में स्वराज दल के संबंध में कहा कि ........ ’’वह भारत में सबसे अधिक संगठित राजनीतिक दल है।’’23
प्रारंभ में स्वराज दल ने सरकार के साथ असहयोग की नीति अपनाकर उसके कार्यों में अड़ंगे लगाए। धीरे-धीरे यह अनुभव किया जाने लगा कि सरकार का विरोध करने का कार्यक्रम बहुत लाभदायक सिद्ध नहीं हुआ है इसलिए स्वराज की नीति में स्वतः परिवर्तन आने लगा।24 अब स्वराजवादियों में असहयोग के स्थान पर उत्तरदायित्व पूर्ण सहयोग की नीति अपनाना शुरू कर दिया था। सुभाष चंद्र बोस लिखते है कि ’’1925 के मध्य से स्वराज दल की मूल अवरोधक की नीति में क्रमिक परिवर्तन होता गया।’’
इसी बीच 16 जून 1925 को चितरंजन दासजी का निधन हो गया, जिससे स्वराज दल को गहरा आघात लगा। अब इस दल का नेतृत्व पंडित मोतीलाल नेहरू के हाथ में आ गया। 1925 में ही गवर्नर की कार्यकारिणी में गृह सदस्य का पद एस.बी. ताम्बे द्वारा ग्रहरण करने से स्वराज दल की एकता भंग हो गई। पंडित मोतीलाल नेहरू ने भी स्कीन समिति के सदस्य बन गए, जिसे सेना के भारतीयकरण के प्रति रिपोर्ट देने नियुक्त किया गया था। लाला लाजपत राय ने केन्द्रीय विधान सभा में उपनेता का पद स्वीकार किया।25 अब सहयोगी मंत्रीमंडल सरकारी बोर्डों में घुस गए और सरकार से लाभ उठाने लगे। चूंकि कांग्रेस असहयोग की नीति पर चलने की समर्थक थी। अतः प्रतियोगी सहयोग के समर्थक जयकर, मुंजे एवं केलकर आदि स्वराज दल से अलग हो गए। अब धीरे-धीरे स्वराज दल की स्थिति कमजोर पड़ने लगा एवं उसका अस्तित्व गिरता चला गया।26
1926 ई. का चुनाव:
नवंबर 1926 के चुनाव में इसे केन्द्र में 38/145 सीटों पर और मद्रास में 41/127, सीटों पर विजय मिली लेकिन शेष प्रांतों विशेषकर संयुक्त प्रांत, मध्यप्रांत व बरार और पंजाब में इसे भारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। साम्प्रदायिक हिन्दू और मुसलमान ताकतों का विधान मंडलों में प्रतिनिधित्व बढ़ गया। स्वराजी इस बार विधान मंडलों में राष्ट्रीय मोर्चा बनाने में नाकामयाब रहे। 1923 के चुनाव की अपेक्षा इस बार सफलता नहीं मिली।27
इस तरह स्वराज दल प्रारंभिक सफलता के बाद परिवर्तित परिस्थितियों में और नीतिगत परिवर्तन के कारण अपनी लोकप्रियता खोता गया व अपनी उपलब्धियाँ अधिक समय तक न बचा सका। स्वराज दल मलरूप में कांग्रेस का ही एक हिस्सा था और अधिक समय तक अपना स्वतंत्र अस्तित्व न रख सका तथा कांग्रेस में विलीन हो गया।
इस तरह स्वराज दल असफल हो गई। पर इसके कार्य व सफलताओं की आलोचना करते समय हमें यह स्मरण रखा चाहिए कि परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह दल उस समय बनी जब महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन असफलता की कगार पर पहुंच गया था। जनता को उत्साह की दिशा नहीं मिल रही थी। स्वराज दल ने ही भारतीय जनता को विकल्प में रास्ता (दिशा) व कार्यक्रम प्रदान किये जिससे जनता में उत्साह व सरकार विरोधी भावना की ज्योति को जलाये रख। इनके प्रयासों से ही सरकार ने मुड्डीमैन कमेटी तथा निर्धारित समय से दो वर्ष पूर्व साइमन कमीशन की नियुक्ति की। 1924 ई. में गोलमेज सम्मेलन बुलाने की मांग की जिसे सरकार ने 1930 ई. में मान लिया। साइमन कमीशन ने स्वीकार किया कि ’’स्वराज दल की सुसंगठित तथा एक अनुशासन प्रिय राजनीतिक दल था, जिसके पास एक सुनिश्चित कार्यक्रम था।’’ इन सबके परिणाम स्वरूप भारत की संवैधानिक प्रगति को विशेष प्रोत्साहन मिला। इस तरह स्वराज दल में भले ही आशानुरूप पूरा कार्य न किया हो, पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक खाली स्थान को उन्होंने भरा। 1922 ई. से 1926 ई. तक राष्ट्रीय आंदोलन की ज्योति को किसी न किसी रूप में जलाये रखा। विधान मंडलों में अवरोध का मार्ग अपनाकर राष्ट्रीयता की वाणी को अवरूद्ध होने से बचा लिया तथा जनता में उत्साह और नवजीवन का संचार किया।
संदर्भ सूची:
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Received on 28.04.2018 Modified on 12.05.2018
Accepted on 20.05.2018 © A&V Publications All right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2018; 6(3):373-378.